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कहानी: "अपना गाँव"
राजेश एक बड़े शहर में इंजीनियर था। उसके पास अच्छी नौकरी, आलीशान घर और सारी सुविधाएं थीं, मगर दिल में हमेशा एक खालीपन सा रहता था। उसे अपने बचपन का गाँव याद आता—वह गाँव जहाँ लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होते थे, जहाँ हर चेहरा जाना-पहचाना होता था।
एक दिन उसे अपने पुराने स्कूल के शिक्षक की मौत की खबर मिली। राजेश तुरंत गाँव पहुँचा। कई सालों बाद गाँव की मिट्टी को छूकर उसे एक अजीब सुकून मिला। लोग उसे देखकर गले मिल रहे थे, कोई उसका हाल पूछ रहा था, तो कोई उसके बचपन की शरारतें याद दिला रहा था।
शमशान घाट पर, जब लोग उस शिक्षक को अंतिम विदाई दे रहे थे, राजेश ने देखा—हर कोई दुखी था, मगर एक-दूसरे का सहारा भी बना हुआ था। कोई खाना बाँट रहा था, कोई बुज़ुर्गों को बैठा रहा था। उसे एहसास हुआ कि यह वही भावना है जो शहर की भीड़ में खो गई थी—समुदाय की भावना, एक-दूसरे के साथ की अनुभूति।
राजेश ने गाँव में कुछ दिन और रुकने का निर्णय लिया। वह फिर से अपने पुराने दोस्तों से मिला, चौपाल में बैठा, बच्चों को कहानियाँ सुनाईं। धीरे-धीरे उसे समझ आया कि वह जो भी है, उसकी पहचान गाँव से ही बनी है—वहीं की सीख, वहीं की परंपराएं और वहीं के रिश्ते।
जब वह वापस शहर लौटा, तो उसने एक निर्णय लिया—हर महीने गाँव जाएगा, वहाँ के स्कूल में कुछ समय पढ़ाएगा और गाँव के विकास में हाथ बंटाएगा।
सारांश / संदेश:
समुदाय से जुड़ाव केवल सामाजिक रिश्ता नहीं होता; यह हमारी पहचान, हमारे मूल्य और हमारे संबंधों की नींव होता है। जब हम उस समुदाय से जुड़ते हैं, तो हमें न केवल अपनापन मिलता है, बल्कि अपनी आत्मा की सच्ची आवाज़ भी सुनाई देती है।